राजस्थान इतिहास के प्रमुख स्रोत

"राजस्थान के इतिहास के प्रमुख स्रोत: राजस्थान के ऐतिहासिक स्रोतों की विस्तृत जानकारी, जिनमें शिलालेख, अभिलेख, साहित्य, और अन्य ऐतिहासिक ...

राजस्थान इतिहास के प्रमुख स्रोत :-Rajasthan Gk

  • अभिलेखों के अध्ययन को 'एपियोग्राफी' कहा जाता है। अभिलेखों से वंशावली, शासकीय नियम, उपाधियाँ, विजय, नागरिकों के द्वारा किए गए निर्माण कार्य, वीर पुरुषों का योगदान तथा सतीयो की महिमा की जानकारी मिलती है।
  • प्रारम्भिक शिलालेख की भाषा संस्कृत थी।
  • जबकि मध्यकाल में फ़ारसी, उर्दू, संस्कृत व राजस्थानी भाषा में शिलालेखों की रचना की गई। जिन शिलालेखों पर किसी शासक की उपलब्धियों की यशोगाथा होती है, उसे प्रशस्ति कहा गया।
  • पुरातात्विक स्रोतों के उत्खनन का कार्य भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा किया जाता है, जिसकी स्थापना अलेक्जेंडर कनिंघम के द्वारा 1861 ई. में की गई।
  • 1902 ई. में जॉन मार्शल द्वारा इसका पुनर्गठन किया गया।
  • राजस्थान अभिलेखों की शैली गद्य - पद्य है।
  • राजस्थान में पुरातात्विक सर्वेक्षण का कार्य प्रारम्भ करने का श्रेय ए.सी.एल. कार्लाइल को दिया जाता है।
  • पत्थर या धातु की सतह पर उकेरे गए लेखों को अभिलेख में सम्मिलित किया जाता है।
  • अभिलेखों में शिलालेख, स्तम्भ लेख, मूर्ति लेख, गुहा लेख आदि को सम्मिलित किया जाता है।
  • भारत में प्राचीनतम अभिलेख सम्राट अशोक मौर्य के है जिनकी भाषा प्राकृत एवं मगधी तथा लिपि ब्राह्मी मिलती है।
  • शक शासक रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख भारत का पहला संस्कृत अभिलेख है।
  • राजस्थान के अभिलेखों की मुख्य भाषा संस्कृत एवं राजस्थानी है और इनकी लिपि महाजनी एवं हर्षलिपि है।

राजस्थान इतिहास के प्रमुख स्त्रोत

महत्वपूर्ण शिलालेख और प्रशस्तियाँ :- 👇

{1} बिजोलिया शिलालेख ( 1170 ई.):-

  • संस्कृत भाषा के इस शिलालेख से चौहान शासकों की जानकारी के साथ -साथ धर्म व शिक्षण व्यवस्था की भी जानकारी प्राप्त होती है।
  • इसका रचियता गुणभद्र था इसमें सांभर व अजमेर के चौहानो को वत्सगोत्रीय ब्राह्मण बताते हुए उनकी उपलब्धियों का उल्लेख मिलता है।
  • इस अभिलेख के अनुसार वासुदेव चाहमान शाकम्भरी में चौहान वंश की स्थपना की तथा सांभर झील बनवाई।
  • इस शिलालेख में 93 संस्कृत पद्य है। इस शिलालेख के लेखक केशव कायस्थ एवं उत्कीर्णकर्ता गोविन्द है।
  • इस अभिलेख में ग्राम समूह की बड़ी इकाई के लिए 'प्रतिगण' शब्द का प्रयोग किया गया है।
  • इस अभिलेख में गाँवो तथा प्रतिगणो के अधिकारियो को 'महत्तम' तथा 'परिग्रही' आदि नामों से जाना जाता था।
  • इस अभिलेख में मेवाड़ में बहने वाली कुटिला नदी व जैन तीर्थस्थलों का उल्लेख है।
  • इस अभिलेख में बिजौलिया के आस -पास के पठारी भाग को उतमादि कहा गया है, जिसे वर्त्तमान में उपरमाल के नाम से जाना जाता है।
  • इस अभिलेख में कई क्षेत्रों के प्राचीन नाम दिए गए है - जैसे - जाबालीपुर (जालौर) , श्रीमाल (भीनमाल), शाकम्भरी (सांभर), नड्डुल (नाडौल), माण्डलकर (मांडलगढ़), विंध्यवल्ली (बिजौलिया), ढिल्लिका (दिल्ली), उत्तमाद्रि (उपरमाल) आदि।
  • यह मूलत: दिगंबर लेख है।

{2} घोसुण्डी शिलालेख (द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व) :-

  • चितौड़ से प्राप्त इस शिलालेख से अश्वमेघ यज्ञ की जानकारी मिलती है।
  • राजस्थान में यह वैष्णव अथवा भागवत सम्प्रदाय से सम्बंधित सर्वाधिक प्राचीन शिलालेख है। द्वितीय शताब्दी ई.पू. का यह शिलालेख उदयपुर संग्रहालय में है।
  • इस लेख में प्रयुक्त की गई भाषा संस्कृत और लिपि ब्राह्मी है।
  • इस लेख में संकर्षण और वासुदेव के पूजा गृह के चारों और पत्थर की चारदीवारी बनाने और गजवंश के सर्वतात द्वारा अश्वमेघ यज्ञ करने का उल्लेख है।
{3} मानमोरी शिलालेख ( 713 ई.) :-
  • चितोड़ में मानसरोवर झील के पास स्थित यह शिलालेख कर्नल जेम्स टॉड को मिला।
  • इस शिलालेख से मौर्य वंश के बारे में जानकारी मिलती है।
{4} चिरवा शिलालेख ( 1273 ईस्वी ):-
  • उदयपुर के चिरवा गांव में एक मंदिर के बाहरी द्वार पर नागरी लिपि में उत्कीर्ण है।
  • इस लेख में 36 पंक्तियों एवं देवनागरी लिपि तथा संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध 51 श्लोको से युक्त यह अभिलेख वागेश्वर और वागेश्वरी की आराधना से प्रारम्भ होता है।
  • इस अभिलेख में जैत्रसिंह, समरसिंह और तेजसिंह आदि को प्रतापी शासक बताया गया है।
  • इस अभिलेख से सर्वप्रथम सती प्रथा एवं पाशुपत शैव धर्म के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
  • इस शिलालेख से मेवाड़ के प्रारम्भिक गुहिलवंशीय शासको, चीरवा गाँव की स्थिति, विष्णु मंदिर की स्थापना, शिव मंदिर के लिए भू- अनुदान, गोचर भूमि का वर्णन मिलता है
  • इस लेख का रचयिता रत्नप्रभ सूरी तथा उत्कीर्णकर्ता पाशर्वचंद्र था।
  • इस शिलालेख के उत्कीर्णक केलिसिंह और शिल्पी देल्हण ने दीवार पर लगाने का कार्य किया।
{5} आमेर का लेख (1612 ईस्वी) :-
  • 1612 ई. में संस्कृत तथा नागरी भाषा में उत्कीर्ण इस लेख से कच्छवाहा शासको के बारे में जानकारी मिलती है।
  • इसमें कच्छवाहा शासकों को 'रघुवंशतिलक' कहा गया है।
  • इसमें पृथ्वीराज, भारमल, भगवन्तदास और मानसिंह का उल्लेख है, एवं जमवारामगढ़ में निर्माणों का उल्लेख है।
  • इस लेख में मानसिंह को भगवन्तदास का पुत्र बताया गया है।
  • इस लेख में निजाम शब्द को प्रांतीय विभाग के रूप में उल्लेखित किया गया है।
  • इस लेख में दौसा से राजधानी जमवारामगढ़ आई तथा जमवारामगढ़ के दुर्ग का निर्माण मानसिंह ने करवाया आदि का वर्णन मिलता है।
{6} कुम्भलगढ़ शिलालेख (1460 ईस्वी) :-
  • यह शिलालेख चितौड़गढ़ स्थित कुम्भश्याम मंदिर में उत्कीर्ण है, जिसका रचयिता महेश था। कुछ इतिहासकार इस शिलालेख का रचियता कान्हा व्यास को मानते है।
  • इस शिलालेख की भाषा संस्कृत एवं लिपि नागरी थी।
  • यह शिलालेख पांच शिलाओं पर उत्कीर्ण था जिसमे से पहली, तीसरी और चौथी शिलाएं उपलब्ध है।
  • पहली शिला में 68 श्लोक है, दूसरी शिला में चित्रांग ताल, चितौड़ दुर्ग तथा चितोड़ का वैष्णव तीर्थ होने का वर्णन मिलता है। तीसरी शिला में वंश वर्णन मिलता है
  • चौथी शिला में हम्मीर के वर्णन में उसके चेलावाट जीतने का उल्लेख है।
  • इसमें खुमाण की विजयो तथा उसके तुलादान का वर्णन है।
  • इस लेख में गुहिल वंश के शासको के बारे में उल्लेख है।
  • इस लेख में उस समय के मेवाड़ के चार भागों का पता चलता है जो चितौड़, आघाट, मेवाड़ और वागड़ थे।
  • इस लेख में मोकल के वर्णन के साथ सपादलक्ष जीतने तथा फिरोज खां को हारने का उल्लेख मिलता है।
  • इसमें बप्पा रावल को विप्रवंशीय ब्राह्मण बताया गया है तथा गुहिल के पुत्र लाट विनोद के नाम का उल्लेख है
  • इस लेख की चौथी शिला में हम्मीर को विषमघाटी पंचानन कहा गया है।
                   
राजस्थान के शिलालेख
राजस्थान के शिलालेख

{7} रणकपुर प्रशस्ति (1439 ई.) :-
  • रणकपुर के जैन मंदिर में लगी हुई इस प्रशस्ति में मेवाड़ के शासक बप्पा रावल से कुम्भा तक की वंशावली है।
  • इसमें महाराणा कुम्भा की विजयो का वर्णन है।
  • इस लेख में नाणक शब्द का प्रयोग मुद्रा के लिए किया गया है।
  • स्थानीय भाषा में आज भी नाणा शब्द मुद्रा के लिए प्रयुक्त होता है।
  • इसमें बप्पा रावल एवं कालभोज को अलग - अलग व्यक्ति बताया गया है।
  • इसका प्रशस्तिकार देपाक था।
{8} कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति (1460 ई.):-
  • 1460 ई. में अत्रि व महेश के द्वारा इस प्रशस्ति की रचना की गई।
  • वर्तमान में इस प्रशस्ति की 2 शिलाएँ ही उपलब्ध है।
  • वर्तमान में 1 से 28 तथा 162 से 187 तक श्लोक ही उपलब्ध हैं।
  • संस्कृत भाषा में रचित इस प्रशस्ति से बप्पा रावल, हम्मीर सिसोदिया, महाराणा कुम्भा के बारे में जानकारी मिलती है।
  • इस प्रशस्ति में कुम्भा को दान गुरु व शैल गुरु ( पहाड़ी दुर्गों का विजेता ) कहा गया है।
  • कुम्भा द्वारा रचित पुस्तक चंडीशतक, गीतगोविन्द की टीका व संगीतराज के बारे में जानकारी भी इसी प्रशस्ति से मिलती है।
  • कुम्भा द्वारा मालवा और गुजरात की सम्मिलित सेनाओं को हराना प्रशस्ति के 179 वें श्लोक में वर्णित है।
{9} रायसिंह प्रशस्ति (1594 ई.) :-
  • यह संस्कृत भाषा में रचित प्रशस्ति है। जो बीकानेर दुर्ग के द्वार पर लगी हुई है।
  • जैता नामक जैन मुनि द्वारा इस प्रशस्ति की रचना की गई।
  • इस प्रशस्ति से बीकानेर के संस्थापक राव बीका से लेकर रायसिंह के काल की उपलब्धियों की जानकारी मिलती है।
  • रायसिंह के द्वारा मुगलों की सेवा की जानकारी, रायसिंह की काबुल, सिंध व कच्छ विजय का उल्लेख इस प्रशस्ति में मिलता है।
  • इस प्रशस्ति में रायसिंह की धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का उल्लेख है।
{10} जगन्नाथ राय का शिलालेख (1652 ई.) :-
  • उदयपुर के जगन्नाथ राय मंदिर के सभा मण्डप के प्रवेश द्वार पर यह शिलालेख उत्कीर्ण है।
  • इसके रचियता तैलंग ब्राह्मण, कृष्णभट्ट तथा मंदिर का सूत्रधार भाणा तथा उसका पुत्र मुकुंद था।
  • यह शिलालेख सपनों के मंदिर में उत्कीर्ण है।
  • इसमें बापा से महाराणा जगतसिंह तक के शासकों की उपलब्धियों का उल्लेख है।
  • इसमें हल्दीघाटी युद्ध तथा जगत सिंह के द्वारा किए गए धार्मिक कार्यो की जानकारी मिलती है।
{11} राज प्रशस्ति (1676 ई.) :-
  • राज सिंह के काल में नो चौकी नमक स्थान पर 25 बड़ी शिलाओं पर उत्कीर्ण ' राजप्रशस्ति महाकाव्य ' देश का सबसे बड़ा शिलालेख है।
  • इसका रचनाकार रणछोड़ भट्ट था।
  • यह प्रशस्ति संस्कृत भाषा में है ,परन्तु अंत में कुछ पंक्तियाँ हिंदी भाषा में भी है।
  • इस प्रशस्ति में उल्लेखित है की राजसमंद झील बनवाने के कार्य का प्रारम्भ दुष्काल पीड़ितों की सहायता के लिए किया गया था।
  • महाराणा राज सिंह की उपलब्धियों की जानकारी के लिए यह प्रशस्ति अत्यंत उपयोगी है।
  • यह प्रशस्ति सत्रहवीं शताब्दी के मेवाड़ के सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक जीवन को जानने के लिए उपयोगी है।
 फारसी शिलालेख :-
  • फारसी भाषा में लिखा सबसे पुराना लेख अजमेर के ढाई दिन के झोपड़े के गुम्बज की दीवार के पीछे लगा हुआ मिला है।
  • यह लेख 1200 ई. का है और इसमें उन व्यक्तियों के नामों का उल्लेख है जिनके निर्देशन में संस्कृत पाठशाला तोड़कर मस्जिद का निर्माण करवाया गया।
चितौड़ से प्राप्त फारसी शिलालेख :-
  • चितौड़ की धाईबी पीर नामक दरगाह से 1325 ई. का फारसी लेख मिला है जिससे ज्ञात होता है की अलाउद्दीन खिलजी ने चितौड़ का नाम अपने पुत्र खिज्र खाँ के नाम पर खिज्राबाद कर दिया था।
➤ ताम्रपत्र :-
  • आहड़ के ताम्रपत्र ( 1206 ई.) में गुजरात के मूलराज से लेकर भीमदेव द्वितीय तक सोलंकी राजाओं की वंशावली दी गई है।
  • इससे यह भी पता चलता है की भीमदेव के समय में मेवाड़ पर गुजरात का प्रभुत्व था।
  • खेरोदा के ताम्रपत्र ( 1437 ई.) से एकलिंगजी में महाराणा कुम्भा द्वारा दान दिये गये खेतों के आस - पास से गुजरने वाले मुख्य मार्गों, उस समय में प्रचलित मुद्रा, धार्मिक स्थिति आदि की जानकारी मिलती है।
  • चिकली ताम्रपत्र ( 1483 ई.) से किसानो से वसूली जाने वाली विविध लाग - बागों का पता चलता है।
  • पुर के ताम्रपत्र ( 1535 ई.) से हाड़ी रानी कर्मावती द्वारा जौहर में प्रवेश करते समय दिए गए भूमि अनुदान की जानकारी मिलती है।
सिक्के :- 
  • सिक्को के अध्ययन को 'न्यूमिसमेटिक्स' कहते है।
  • सिक्को से राजनैतिक,आर्थिक,सामाजिक,धार्मिक जीवन की जानकारी मिलती है।
  • सिक्को से साम्राज्य की सीमा का भी बोध होता है।
  • विम कडफिसस के द्वारा भारत में सर्वप्रथम सोने के सिक्कों का प्रचलन कराया गया।
  • 1871 ई. में कार्लाइल को नगर (उनियारा) से लगभग 6000 मालव सिक्के मिले थे जिससे वहाँ मालवों के आधिपत्य तथा उनकी समृद्धि का पता चलता है।
  • रैढ़ ( टोंक ) से खुदाई के दौरान वहाँ से 3075 चांदी के पंचमार्क/ आहत सिक्के मिले। ये सिक्के भारत के प्राचीनतम सिक्के हैं।
  • इस पर विशेष प्रकार का चिन्ह अंकित है और कोई लेप नहीं है। ये सिक्के मौर्यकाल के थे।
  • भरतपुर के बयाना में 1921 गुप्तकालीन स्वर्ण सिक्के मिले है।
  • तत्कालीन राजपुताना की रियासतों के सिक्को के विषय पर वेब ने 1893 ई. में 'द करेंसीज ऑफ़ दि हिन्दू स्टैट्स ऑफ़ राजपूताना' नामक पुस्तक लिखी, जो आज भी अद्वितीय मानी जाती है।
  • दसवीं, ग्यारहवीं शताब्दी में प्रचलित सिक्को पर गधे के समान आकृति का अंकन मिलता है , इसलिए इन्हें   '  गधिया ' सिक्के कहा जाता है।
  • 1562 ई. में आमेर के द्वारा मुगलो की अधीनता स्वीकार की गई। अतः कच्छवाहा शासकों ने सर्वप्रथम टकसाल ( mint ) का निर्माण कराया।
  1. जयपुर के सिक्के :- झाड़शाही, मुहम्मदशाही
  2. जोधपुर के सिक्के :- विजयशाही, गजशाही,भीमशाही,ढब्बुशाही
  3. बीकानेर के सिक्के :- आलमशाही, गंगाशाही
  4. मेवाड़ के सिक्के :- स्वरुपशाही,चित्तौड़ी, चांदोड़ी
  5. झालावाड़ के सिक्के :- मदनशाही
  6. बांसवाड़ा के सिक्के :- सालीमशाही, लक्ष्मणशाही
  7. जैसलमेर के सिक्के :- अखयशाही, डोडिया
  8. कोटा के सिक्के :- गुमानशाही
  • ब्रिटिश सत्ता की स्थापना के बाद कलदार रुपये का प्रचलन हुआ और धीरे -धीरे राजपूत राज्यों में ढ़लने वाले सिक्कों का प्रचलन बंद हो गया।

साहित्यिक स्रोत :-

राजस्थान के इतिहास लेखन के लिए संस्कृत, प्राकृत, अपभृंश, राजस्थानी, हिंदी, फ़ारसी आदि कृतियाँ बड़ी उपयोगी है |

1. संस्कृत साहित्य
  • राजस्थान के इतिहास के लिए कई ग्रन्थ है जो अनूप संस्कृत पुस्तकालय, बीकानेर , पुस्तक प्रकाश, जोधपुर , उदयपुर साहित्य संस्थान उदयपुर, प्रताप शोध संस्थान उदयपुर, प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर आदि में सुरक्षित है |

पृथ्वीराज विजय -

  • जयानक ने 12 वीं शताब्दी के आखरी चरण पृथ्वीराज विजय महाकाव्य लिखा था
  • इस काव्य में सपादलक्ष के चौहानो की सांस्कृतिक व राजनितिक उपलब्धियों का वर्णन मिलता है |

हम्मीर महाकाव्य -
  • नयनचन्द्र सूरी द्वारा लिखित हम्मीर महाकाव्य 1403 ई. में चौहानो के इतिहास की जानकारी उपलब्ध करवाता है |
  • अलाउद्दीन खिलजी के रणथंभौर आक्रमण की कई घटनाओं को समझने में सहायता मिलती है |
राजवल्लभ -
  • यह ग्रन्थ स्थापत्य कला को समझने की दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है |
  • इसकी रचना महाराणा कुम्भा के मुख्य शिल्पी मण्डन ने 15 वीं शताब्दी में की गई |
  • इस ग्रन्थ में कुल 14 अध्याय है |
  • इस ग्रन्थ के द्वारा ग्राम, नगर, दुर्ग, राजप्रासाद, मंदिर बाजार आदि इमारतों के निर्माण की पद्धति पर प्रकाश पड़ता है |           
 राजरत्नाकर :-
  • इस ग्रन्थ की रचना लेखक सदाशिव ने महाराणा राजसिंह के समय की थी |
  • इसमें 22 सर्ग है |
  • महाराणा राजसिंह के समय के समाज स चित्रण एवं दरबारी जीवन की जानकारी मिलती है |
राजविनोद :-
  • इसकी रचना भट्ट सदाशिव ने बीकानेर के महाराजा कल्याणमल की आज्ञा से 16 वीं शताब्दी में की थी |
  • इसमें उस समय के सामाजिक, आर्थिक, सैन्य आदि विषयों की जानकारी मिलती है |
भट्टिकाव्य :-
  • इसमें महाराजा अक्षयसिंह के प्रासादों व तुलादान आदि का वर्णन मिलता है |
  • इस काव्य की रचना 15 वीं शताब्दी में की गई |
एकलिंग माहात्म्य :-
  • महाराणा कुम्भा द्वारा रचित एकलिंग माहात्म्य से गुहिल शासकों की वंशावली तथा मेवाड़ के सामाजिक संगठन की जानकारी मिलती है |
अमरसार :-
  • इसकी रचना पंडित जीवधर ने 16 वीं शताब्दी में की थी |
  • इसके द्वारा महाराणा प्रताप और अमरसिंह प्रथम के सम्बन्ध में जानकारी मिलती है |
अजितोदय :-
  • इस ग्रन्थ की रचना जगजीवन भट्ट द्वारा की गई जो की जोधपुर नरेश अजीतसिंह का दरबारी कवी था |
  • इस ग्रन्थ में महाराजा जसवंतसिंह और अजीतसिंह के समय में युद्धों, विजयों और संधियों के साथ-साथ उस समय के प्रचलित रीतियों और रिवाजो की भी जानकारी मिलती है |
राजस्थानी साहित्य :-
  • राजस्थानी कृतियाँ गद्य और पद्य दोनों में मिलती है |
  • गद्य कृतियों में ख्यात, बात, विगत, हाल, वंशावली, याददाश्त, हकीकत, बही आदि को ले सकते है |
  • पद्य कृतियों में रासो, विलास, रूपक, प्रकास, वैली, वचनिका, दूहा, झमाल, छंद आदि को लिया जा सकता है |
  • राजस्थानी परम्परा में ख्यात इतिहास को कहते है |
  • बात में किसी व्यक्ति, जाती, घटना का संक्षिप्त इतिहास होता है, ख्यात बड़ी होती है और बात छोटी होती है |
साहित्यिक स्रोत :-

कान्हड़दे प्रबंध :-
  • इसकी रचना पदमनाभ ने जालौर के शासक अखैराज के काल में 15 वीं शताब्दी में की गई |
  • इस काव्य में अलाउद्दीन का जालौर आक्रमण है, जिसमे जालौर के शासक कान्हड़दे उसका पुत्र वीरमदे तथा उनके अनेक साथी जो तुर्की सेना से लड़कर काम आये |
राव जैतसी रो छन्द :-
  • इसकी रचना 16 वीं शताब्दी में बिठू सूजा द्वारा की गई |
  • इस काव्य में कामरान द्वारा भटनेर किले पर किये गये आक्रमण का वर्णन है |
  • वेली क्रिसन रुकमणी री :-
  • कुँवर पृथ्वीराज द्वारा इसकी रचना की गई थी |
  • यह कृति मूल रूप से भक्ति रस से सम्बन्धित है |
राजरूपक :-
  • इसके रचनाकार वीरभाण थे |
  • यह जोधपुर के महाराजा अभयसिंह के समकालीन था |
सूरज प्रकाश :-
  • इसकी रचना जोधपुर के महाराजा अभयसिंह के दरबारी कवि करणीदान द्वारा की गई |
  • वर्णन धारा प्रवाह तथा भाषा-लावण्य इस ग्रन्थ की विशेषता है
ख्यात साहित्य :-
  • ऐसा साहित्य जो ख्याति को प्रतिपादित करे, ख्यात साहित्य कहलाता है |
  • ख्यात शब्द संस्कृत के शब्द प्रख्यात का अपभृंश है |
  • ख्यातों में प्रसिद्ध राजवंशो की स्थापना, राजाओं के वंशक्रम, उनकी उपलब्धियों एवं कार्यों का वर्णन मिलता है |
  • राजस्थान की प्रसिद्ध ख्याते है -
मुहणोत नैणसी {1610 -1670 ई.} :-
  • नैणसी जोधपुर के दीवान जयमल का ज्येष्ठ पुत्र था |
  • नैणसी की प्रसिद्ध रचना ' नैणसी री ख्यात ' एवं 'मारवाड़ रा परगना री विगत ' है |
  • नैणसी री ख्यात का रचनाकाल 1643 से 1666 ई. है |
  • ख्यात में चौहानो तथा भाटियों का काफी विस्तार से वर्णन दिया गया है |
  • ' मारवाड़ रा परगना री विगत ' से मारवाड़ के परगनो, कस्बों की आबादी और वहाँ के सामाजिक, धार्मिक व आर्थिक व्यवस्था की जानकारी मिलती है |
  • मुंशी देवीप्रसाद ने नैणसी को ' राजस्थान का अबुल फजल ' कहा है |
बांकीदास आशिया {1781-1833 ई.} :-
  • मुनि जिनविजय ने इसे एक महान कवि और इतिहासकार स्वीकार किया है |
  • महाराजा मानसिंह ने बांकीदास को 'लाख पसाव ' के सम्मान से सम्मानित किया |
  • बांकीदास डिंगल, पिंगल, संस्कृत, फ़ारसी भाषाओं का अच्छा जानकार था |
  • इसकी प्रसिद्ध रचना इसकी ख्यात है जिसमे लगभग 3000 बातें है |

दयालदास सिंढायच {1798 - 1891 ई.} :-
  • यह बीकानेर के महाराजा रतनसिंह का राजदरबारी था |
  • दयालदास की रचनाओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण 'बीकानेर रै राठोड़ा री ख्यात ' है , जो की 'दयालदास री ख्यात ' के नाम से ज्यादा प्रसिद्ध है |
  • बीकानेर राज्य का क्रमबद्ध इतिहास हमें सर्वप्रथम दयालदास की ख्यात से ही मिलता है |
सूर्यमल्ल मिश्रण :-
  • बूंदी के महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण की सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना 'वंश भास्कर 'है जो कि पद्य में लिखा गया है |
  • चार हजार मुद्रित पृष्ठों में सवा लाख छंदों के वंश भास्कर में मूलरूप से बूँदी के हाड़ा चौहानो का इतिहास है |
  • यह ग्रन्थ वीर प्रसंगों, युद्ध वर्णनों की जानकारी देता है |
  • सूर्यमल्ल मिश्रण की अन्य कृति वीर सतसई है जो की वीर रस प्रधान है | इसकी पृष्टभूमि 1857 की क्रांति है |


फारसी भाषा का साहित्य :-
  • हसन निजामी की ताजुल मुआसिर 12 वीं शताब्दी के द्वारा अजमेर नगर की समृद्धि, पृथ्वीराज चोहान के अंतिम दिनों एवं मुस्लिम विजय का अभिज्ञान होता है |
  • मिनहाज उल सिराज कृत तबकाते नासिरी 13 वीं शताब्दी की रचना है ,जो अजमेर, जालौर और नागौर आदि स्थानों पर मुस्लिम प्रभाव का वर्णन मिलता है |
  • हजरत अमीर खुसरो की तारीख-ए-अलाई , खजाइनुल फुतुह आदि रचनाओं से अलाउद्दीन खिलजी की चितौड़ व रणथंभौर विजय की जानकारी मिलती है |
  • अब्बास खां सरवानी की तारीख-ए-शेरशाही से शेरशाह और मालदेव के सम्बन्धो का ज्ञान होता है |
  • अब्दुल हामिद लाहोरी की बादशाहनामा , मुहम्मद साकी मुस्तैदखां द्वारा रचित मासिर-ए-आलमगीरी शाहजहाँ के काल में राजस्थान के इतिहास की जानकारी मिलती है |
अन्य अभिलेखीय सामग्री :-
  • अर्जदाश्त - प्रजा द्वारा बादशाहों को लिखे जाने वाले पत्र थे |
  • हस्बुलहुक्म - बादशाही आज्ञा जिसे वजीर द्वारा अपनी ओर से लिखा जाता था |
  • रम्ज तथा अहकाम - बादशाहों द्वारा अपने सचिव को लिखवाई गई टिप्पणियाँ थी, जिसके आधार पर सचिव पत्र तैयार करता था |
  • जिन बहियों में राजा की दिनचर्या का उल्लेख होता था, उन्हें हकीकत बहियाँ कहा जाता था |
  • जिन बहियों में शासकीय आदेशों की नक़ल होती थी, उन्हें हुकूमत री बही, कहा जाता था |
  • जिन बहियों में महत्वपूर्ण व्यक्तियों से प्राप्त पत्रों की नक़ल रहती थी उन्हें खरीता बही कहा जाता था |
  • विवाह आदि से सम्बंधित बही को 'ब्याह री बही ' एवं सरकारी भवनों के निर्माण से सम्बंधित बहियाँ कमठाना बही कही जाती थी |
  • सबसे पुरानी बही राणा राजसिंह (1652 -1680 ई.) के समय की है |
  • दूसरी सबसे पुरानी बही 'जोधपुर हुकूमत री बही' है |

इस लेख में हमारे द्वारा राजस्थान इतिहास के प्रमुख स्रोत के संबंध में परीक्षापयोगी जानकारी को साझा किया गया है, हमारे द्वारा प्रामाणिक जानकारी ही दी गई है फिर भी किसी भी प्रकार की गलती या त्रुटि होना मानवीय भूल हो सकती है | आप इस सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का सुझाव हमे examword.in@gmail.com पर Email के माध्यम से दे सकते है |